(आयुष अंतिमा नेटवर्क)
रात का एक बज चुका था, बस धीमे-धीमे चल रही थी, कोहरे के कारण बाहर साफ दिखाई भी नहीं दे रहा था, ठंड भी गजब की थी, सर्द हवा बस के शीशों के किनारों से आ शूल की तरह बदन को भेद रही थी। बस में सन्नाटा पसरा था, नींद आने का नाम नहीं ले रही थी, मुझे किसी साहित्यिक समारोह में शामिल होने के लिए काठमांडू जरूरी जाना था, फ्लाइट की टिकट नहीं मिली, इसलिए ट्रेन और फिर बस से जाना पड़ रहा है। बैठे-बैठे दस साल एक पुराना किस्सा याद आने लगा, जब हम दोनों गोरखपुर से काठमांडू की बस में बैठे थे, तीस दिसंबर आज ही का दिन था। सुनसान सड़कें सायं-सायं करती, ठंडी हवाएं रात का सफर, एक तरफ पहाड़ एक तरफ खाई, घुमावदार पतली सड़कें। सड़कों पर रोशनी भी ना के बराबर, मन में एक अनजाना सा डर, मैंने अपने ओवरकोट में से हाथ निकाल, इनका हाथ कस कर पकड़ लिया, इनके और नजदीक सरक गई। इन्होंने भी मेरे कंधे पर हाथ रख दिया और मेरी घबराहट देख पास सरक आए। मेरी आंखें नींद से बोझल होने लगीं, मैं उनके कंधे पर सर रख जाने कब नींद की आगोश में चली गई। कुछ समय बाद एक झटके से मेरी नींद खुल गई, मैंने इन्हें कसकर पकड़ लिया था, घबरा कर पूछा क्या हुआ, बाहर से हल्की सी रोशनी आ रही थी, इन्होंने कहा बस चाय के लिए रुकी है। इतना खतरनाक मोड़ था, खाई की तरफ छोटी सी चट्टान का टुकड़ा था, वहां चाय की थड़ी थी, एक तरह से दो बसों की क्रॉसिंग का रास्ता था। उसी वक्त दूसरी बस वहां से निकल गई, मैं यह देख बहुत डर गई थी, इन्होंने चाय के लिए पूछा, ठंड बहुत थी, मन कर रहा था, कुछ गरम पीने को लेकिन मैंने कहा आप नीचे नहीं जाओगे, चाय बस में ही मंगवा लो, खैर समय कम था तो यह मान गए और चाय बस में ही मंगवा ली। जैसे तैसे दो ढाई घंटे में सुबह सवेरे हम काठमांडू पहुंच गये, जान में जान आई। आज भी वो रात याद करके बदन में सिहरन सी होने लगती है।