काहे रे बकि मूल गवावै, राम के नाम भलैं सचु पावै॥ बाद विवाद न कीजै लोई, बाद विवाद न हरि रस होई॥ मैं तें मेरी मानें नाहीं, मैं हों मेटि मिलै हरि मांहीं॥ हारि जीवती सौं हरि रस जाई, समझि देखि मेरे मन भाई॥ भूल न छाडी दादू बौरे, जनि भूलै तू बकबे औरे॥ हे मानव ! वाद-विवाद में जीव के श्वास-प्रश्वास व्यर्थ ही जाते हैं। सुख तो राम-नाम के चिन्तन में ही है। अत: वादविवाद करना छोड़ दे। वादविवाद से हरि रस की प्राप्ति नहीं होती और तेरा-मेरा भाव करने से भगवान भी प्रसन्न नहीं होते। भगवान् के भक्तों ने तेरी मेरी इस भेद-बुद्धि को त्याग कर के ही भगवान् के स्वरूप को प्राप्त किया है। अत: हे पण्डित ! तुम भी अपने मन में विचार कर देखो कि जयपराजय की भावना से शास्त्रार्थ करके किसी ने भी क्या हरि-रस को प्राप्त किया है। प्रत्युत वादी-प्रतिवादी के द्वारा जो परस्पर में वाग्-व्यवहार होता है, उससे दोनों के मनों में जय-पराजय की भावना को लेकर कटुता पैदा हो जाती है, जिससे दोनों का अन्त:करण दूषित हो जाता है। जिसके कारण हरि-रस भी नष्ट हो जाता है। हे विद्या के अभिमानी पंडित ! वाद विवाद को छोड़ दो, प्रभु को मत भूलो, परब्रह्म परमात्मा का ध्यान करो। इस पद्य के द्वारा सांभर में एक शास्त्रार्थ में कुशल पंडित को उपदेश दिया था।
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