दिल्ली के चुनावी नतीजे भाजपा के खेमे मे तो खुशी का वातावरण है क्योंकि वहां केजरीवाल के उस घमंड को दिल्ली की जनता ने ध्वस्त करने के साथ ही भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला। सत्ता का घमंड जब किसी नेता के सर चढ़कर बोलता है तो आमजन अपने मताधिकार का प्रयोग कर उस घमंड को उतारने में एक मिनट नहीं लगाती। इन चुनावों को देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल के भविष्य के परिप्रेक्ष्य में देखें तो कांग्रेस अपने अपरिपक्व नेतृत्व के कारण भारतीय राजनीति के पटल से ओझल होने की तरफ कदम बढ़ा रही है। आज भी कांग्रेस सत्ता रूपी फोबिये से बाहर नहीं निकल पाई है, जो सत्ता को अपनी बपौती समझती थी। दिल्ली के चुनावों में 70 में से 67 उम्मीदवारों की जमानत जब्त का रिकार्ड बनाने के बाद लगातार 6 चुनावों में शून्य सीट प्राप्त कर गिनिज वर्ड बुक में अपना नाम दर्ज करवाने की ओर अग्रसर है। अपरिपक्व नेतृत्व के चलते कांग्रेस का संगठन का ढांचा चरमरा गया है क्योंकि चुनाव संगठन के सहारे ही जीते जाते हैं। कांग्रेस के पास ऐसी कोई ठोस नीति नहीं है कि उसके बलबूते जनता को विश्वास में लिया जा सके। हर चुनावों में केवल चंद उधोगपतियो को टारगेट करने की रणनीति से देश का आवाम उब चुका है। हालांकि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मलिकार्जुन खड़गे जरूर है लेकिन वह सिर्फ रबर स्टाम्प है। कांग्रेस के पुराने नेता व रणनितीकार राहुल गांधी के कारनामों से तंग आकर साइलेंट मोड में चले गये है। वैसे देखा जाए तो दिल्ली की करीब तेरह सीटों पर भाजपा को जीत दिलवाने में कांग्रेस ने अहम भूमिका निभाई है। नेता प्रतिपक्ष की भूमिका के रूप में भी देश के आवाम पर कोई छाप छोड़ने में राहुल गांधी नाकामयाब रहे हैं। जिंदगी के आधे पड़ाव में पहुंचने के बाद भी वही बचकाने वाले बयान देते नजर आ रहे हैं। दिल्ली के चुनावों को लेकर भाजपा को देखा जाए तो उसने मुख्यमंत्रीयो, सांसदों व विधायकों की फौज चुनावी समर मे झौंक थी। वोट शेयर के हिसाब से कोई ज्यादा अंतर न होना भाजपा के चेहरे पर शिकन जरूर पैदा करेगा लेकिन उस शिकन की लकीरो को बहुमत व कांग्रेस के रिकार्ड ने जरूर खुशी में तब्दील किया है। आज देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल के जो हालात हैं, उसके लिए वह खुद जिम्मेदार है क्योंकि एक दिशाहीन, अपरिपक्व नेतृत्व को ढो रहा है ।
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