जागि रे किस नींदड़ी सूता, रैण बिहाई सब गई, दिन आइ पहूंता।। सो क्यों सोवै सोवै नींदड़ी, जिस मरणां होवै रे।
जोरा बैरी जागणां, जीव तूं क्यों सोवै रे॥ जाके सिर परि जम खडा, सर सांधे मारै रे। सो क्यों सोवै नींदड़ी, कहि क्यों न पुकारै रे॥ दिन प्रति निस काल झंपै, जीव न जागै रे। दादू सूता नींदड़ी, उस अंगि न लागै रे॥ अर्थात हे जीव ! जाग, जाग । मोहनिशा में क्यों सो रहा है। तेरी आयु भी प्राय: समाप्त हो चलो और मृत्यु भी समीप ही खड़ी है। जिसको मृत्यु का भय होता है वह निद्रा में कैसे सो सकता है ? अनन्त विश्व को खाने वाला काल भी तेरा वैसे ही तेरे शिर पर बैठा है और तेरे को खाने के लिये उद्यत हो रहा है। अत: मोहनिशा को त्यागकर खड़ा हो जा, क्या तुझे यम का भी भय नहीं लगता ? वह दिन-रात के द्वारा तेरी आयु खा रहा है। अत: हे भगवन् ! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो, 'ऐसे कहते हुए भगवान् की शरण में चला जा, उसका अवलम्बन ले लो। यम का उद्दण्डाकार दण्ड चारों तरफ स्फुरित हो रहा है। बहुत दुःख का विषय है कि फिर भी मनुष्य भगवान् की शरण में नहीं जाता और न मोहनिद्रा को ही त्यागता है। योगवासिष्ठ में-अनन्त संसार को निगलने वाला यह काल विश्वात्म-भाव को प्राप्त होकर महापुरूषों के लिये भी एक क्षण की प्रतीक्षा नहीं करता। जो शुभकर्म करने वाले सुमेरु के तुल्य महान् और सुन्दर है, उनको भी यह काल निगल जाता हैं, जैसे गरुड़ जी सांपों को निगल जाते हैं।