तूं ही मेरे रसनां, तूं ही मेरे बैना, तूं ही मेरे श्रवनां, तूहीं मेरे नैना।
तूं ही मेरे आतम कवल मंझारी, तू ही मेरे मनसा तुम पर वारी॥
तूं ही मेरे मन हीं, तूंहीं मेरे श्वासा, तूंही मेरे सुरतै प्राणनिवासा॥
तूं ही मेरे नखसिख सकल सरीरा, तूं ही मेरे जियरे ज्यौं जल नीरा॥
तुम बिन मेरे औरन कोइ नाहीं, तूं ही मेरे जीवन दादू माही॥
संतप्रवर श्रीदादू दयाल जी महाराज कहते है कि हे प्रभो ! आप ही मेरी वाणी, जिह्वा, श्रवण, नेत्र आदि इन्द्रिय समुदाय है। आप ही मेरे हृदय कमल में आत्म रूप से विराज रहे हैं। आप ही मेरी बुद्धि परिवार है। आप ही मेरे श्वास प्राण तथा प्राणवृतियां है। आप ही मेरे प्राणों के निवास स्थान हैं। नख से शिखा पर्यन जो शरीर है यह भी आप ही है। जैसे नीर और जल ये दो नाम ही है, इनके अर्थ में कुछ भी भेद नहीं है, ऐसे जीव और ब्रह्म भी शब्द भेद ही है अर्थ में कोई भेद नहीं अत: आप ही मेरे जीव है। आपके बिना इस संसार में मेरा कोई दूसरा सम्बन्धी नहीं है। आप ही मेरे जीवन के आधार हैं। मैं आप में ही बैठता हूं। इस प्रकार जो अभेद बुद्धि से ब्रह्म में सब कुछ ब्रह्म ही है, ऐसा सर्वात्मभाव करता है। यह ही उसका स्मरण तथा उत्तम ज्ञान है। लिखा है कि- हे वरदायक प्रभो ! मुझ को ओर मेरी समस्त चेतन अचेतन रूप वस्तुओं को अपनी सेवा की सामग्री के रूप में स्वीकार करें। मेरे एकमात्र आप ही रक्षक हैं। आप ही मुझ पर दया करने वाले हैं। अत: पापों को मेरी तरफ मत प्रवृत्त कीजिये और प्रवृत्त हुए पापों को नष्ट कर दीजिये। इस पद्य में श्रीदादू जी महाराज ने अपना ब्रह्म में सर्वात्मभाव प्रदर्शित किया है। यह सर्वात्मभाव ज्ञान का ही फल है और जीवन्मुक्तदशा में फलना है।
वेदान्तसिद्धान्तसारसंग्रह में लिखा है कि-जो समाधि के लिये यल करता है उस साधक के संकल्प विकल्प नष्ट हो जाते हैं और उसी से ब्रह्म में सर्वात्मभाव भी पैदा हो जाता है। यह सर्वात्मभाव ही मोक्ष है। विद्वान् को यह सर्वात्मभाव ज्ञान के फलरूप में प्राप्त होता है और जीवन्मुक्त को जो स्वानन्दानुभव प्राप्त होता है, वह सर्वात्मभाव का ही फल है।